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सच्चा धर्म

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बोर्टल जेल ( लाहौर ) की बात है । भगत सिंह फांसी का इंतजार कर रहे थे । उसी जेल में एक वृद्ध स्वतंत्रता सेनानी भी थे । उन्होंने भगत सिंह से यह कहकर मिलने से मना कर दिया था कि उसने अपने केश कटवाकर सिख धर्म की तौहीन की है । भगत सिंह ने उन वृद्ध स्वतंत्रता सेनानी को जवाब भेजा- मैं देश पर अपने अंग - अंग कुर्बान कर सकता हूं । यह जवाब बूढ़े स्वतंत्रता सेनानी को रुला गया । उम्र के आखिरी पड़ाव पर एक युवक ने उन्हें धर्म का मर्म समझा दिया था । भगत सिंह और वृद्ध सेनानी धर्म के दो छोर पर खड़े थे । एक सिरा घोर विश्वास का था , तो दूसरा तर्क और अंतःप्रज्ञा का । हम हरेक दौर में इन दो छोरों का टकराव पाते हैं । एक पीढ़ी - दर - पीढ़ी चली आ रही परंपराओं से जुड़ा है , जो अपने कर्मकांड में जरा सा भी इधर - उधर नहीं होना चाहता , जबकि दूसरा अपने भीतर से उपजी ईश्वरीय धारणा से जुड़ा है , जो ईश्वर की हर रचना में खुद को देखता हैं और खुद में ईश्वर के एक अंश को ।

इसीलिए उदात्त मानवीय मूल्यों का वह वाहक हो जाता है । विख्यात साहित्यकार मैक्सिम गोर्की रूसी क्रांति से जुड़े रहे । पर वह कार्ल मार्क्स की तरह धर्म को अफीम की गोली नहीं कहते थे । वह खुद में मानवीय मूल्यों की उदात्त भावना के रूप में धर्म को स्वीकार करते हैं । उन्होंने कहा है , बचपन में उन्हें दो - दो ईश्वर का सामना करना पड़ा । एक वे , जो नाना के थे । नाना वाले ईश्वर हमेशा गलतियों पर सबक सिखाने को तैयार रहते , जबकि नानी वाले ईश्वर हमेशा गलतियों को माफ करते और प्रेम से पेश आते । उन्होंने कहा भी कि दूसरों के साथ प्रेम के साथ पेश आना और उन्हें अपने जैसा मानना ही सच्चा धर्म है ।

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