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उन्हें हम भूलने लगे हैं

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पंछी मुझे प्यारे लगते हैं । उन्मुक्त होना कितनी बड़ी बात है ? मैं सैकड़ों गौरैयों , बीसियों कौए - मैना वाले घर में बड़ा हुआ , पतंगों के साथ आसमान में उड़ती चीलें और घर से थोड़ा आगे जाते ही असंख्य गिद्ध दिख जाते थे , जो उड़ने से पहले दौड़ते थे , बिल्कुल हवाई जहाज की तरह । गौरैया गायब है , मैना डटी है , गिद्ध तकरीबन लापता हैं । बस फ्लाइंग रैट कहे जाने वाले कबूतर दिखते हैं , जो न जाने क्यों इंसानों के करीब रहना चाहते हैं ।

पक्षियों और पेड़ - पौधों से हम इतने दूर चले गए हैं कि हमारे लिए हर पेड़ पेड़ है ; हर फूल बस एक फूल है । वे हैं , मगर रहें या न रहें , हमें क्या ? यह बात केवल जीव या वनस्पति जगत की नहीं है । गार्ड भैया , कूड़े वाले भैया , ड्राइवर भैया ... ये सब पेड़ , फूल और पंछी की तरह हैं , नाम और पहचान से वंचित । ये सब तो फिर भी हैं , और जेनेरिक भैया हैं , लेकिन किसान हमारा कोई नहीं है ? दरअसल , शहर क्रूर हैं , और शहरी क्रूरता का स्मार्ट चेहरा कॉरपोरेट है ।

जो स्मार्ट नहीं , वे देहाती हैं , वही देहाती लोग किसानों के अनमने रिश्तेदार हैं । ये किसान भी मानव संसार के अनाम पेड़ और पंछी हैं । इनका असली नाम जानिए , इन्हें पहचानिए । ज्वार , बाजरा , मक्का , चना , गेहूं , धान और अरहर का फर्क समझने की कोशिश नहीं करेंगे , तो किसान की बात किस मुंह से करेंगे !

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