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अपनी प्रकृति में रहें

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उनका जीवन के प्रति एक खास नजरिया है । वह कहते हैं , उन्हें न किसी से कोई गिला - शिकवा है , और न ही प्रतियोगिता । वह किसी के उपदेश या प्रेरणा से भी इत्तफाक नहीं रखते । अपने गुण - अवगुण उनके जीवन के आधार हैं । वह कैसा जीवन गुजारना चाहते हैं , इसका निर्धारण वह स्वयं करते हैं । हमेशा ' स्व ' में लीन रहते हुए वह देश - समाज की तमाम क्रिया - प्रतिक्रियाओं से दूर रहते हैं । उन्हें जैसा होना चाहिए , वह वैसा हैं , उन्हें इस बात से संतोष है । जीवन धारा के समान है । बस बहते जाना , बहते जाना ।

धारा का स्वभाव , कार्य और गुण ' बहना ' है । अपने निर्णय को न किसी पर थोपें और न किसी के थोपे गए निर्णय को मानें , कोई भी ठीक नहीं है । अपना स्वभाव , गुण या कार्य कैसा है , वह जीवन के कितना अनुरूप है , इस पर जरूर नजर होनी चाहिए । दूसरों की निगाह में अच्छा - बुरा महत्वपूर्ण नहीं है । महत्वपूर्ण है , अपनी नजर में अच्छा बने रहना । अपनी प्रकृति में रहना , जीवन जीने का बेहतरीन पैमाना हो सकता है । गुरुदत्त आंतरिक विमर्श के साथ जीवन गुजारने को बेहतरीन सोच कहते थे । आंतरिक विमर्श का मतलब ' स्व प्रकृति ' में स्वयं को स्थापित करना । स्वयं को स्वयं में स्थापित करना किसी बड़ी साधना से कम नहीं । आमतौर पर हम अपनी प्रकृति के बजाय दूसरों की प्रकृति में जीते हैं , इसलिए जीवन में तरह - तरह के उतार - चढ़ाव आते रहते हैं और उनसे प्रभावित होते रहते हैं । हम भूल जाते हैं कि दूसरों के विचारों व अनुभवों के सांचे एकदम अलग होते हैं , उनमें हम कैसे फिट बैठ सकते हैं ? जीवन हमारा है , तो प्रकृति , विचार और अनुभव भी हमारे होने चाहिए । 

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