जीव बिना चिंतन के नही रह सकता। वह निरंतर चिंतन करता ही रहता है। लेकिन क्या परमात्मा भी हमारी तरह कुछ सोचता है? क्या वह भी हमारी तरह चिंतन करता होगा? क्या उसके मन से ही यह जगत गतिमान है?
इस जगत की सृष्टि परमात्मा की इच्छा के अनुसार हुई है और उसी की इच्छा के अनुसार सभी जीव अपने-अपने कर्मो में लगे हुए हैं। यही है वास्तविकता ।
इसको हम अस्वीकार नही कर सकते। लेकिन जो जीवात्मा है, वह चिंतन के बिना नही रह सकती शांत होकर रहना उसका स्वभाव नही है, वह हमेशा चिंतन करती है। तो क्या परमात्मा बिना चिंतन के रह सकता है । जब तक सृस्टि का काम सुरु नही होता, तब तक परमात्मा का मन चिंतन रहित रहता है। ज्यो ही सृष्टि का काम शुरु होता है, परमात्मा का मन भी चिंतन करना शुरू करता है। इन्हें कुछ चिंतन करने के लिए बाध्य होना पड़ता है। एक जीवात्मा भले ही सोच सकती है, 'मैं एक महत्त्वहीन व्यक्ति हूं, मैं पढ़ा लिखा नही हूं, मेरे पास न बुद्धि है, न विद्वता है,न धन है। क्या परमात्मा मेरे विषय में भी सोचते हैं? मेरे जैसे एक छुद्र, महत्वहीन जीव के विषय मे भी सोचते है.....?' उन्हें स्मरण रखना चाहिए कि परमात्मा न केवल उसकर विषय मे सोचते है बल्कि परिस्थिति के दबाव से वह सोचने के लिए बाध्य हैं।'ये लोग अति साधारण मानुस है, जो किसी तरह दोनो समय पेट पूर्ति की व्यवस्था करने में व्यस्त रहते है। मैं उनके विषय मे नही सोच सकता ?'वे इस तरह सोच भी नही सकते है, क्योंकि परमात्मा में के विधान के अनुसार अपनी बनाई संतानो के विषय मे सोचने के लिए बाध्य है। क्या वे सिर्फ मनुष्यों के विषय मे सोचते है अथवा सिर्फ छूद्र और निर्बल के विषय मे सोचते है ? नही, वह सभी के विषय मे सोचते हैं- वे छुद्र दीमक को भी उस प्यार और मोहब्बत से देखते है, जिस तरह एक मनुष्य को।तो आप समझ सकते हो कि आप महत्वहीन नही हैं, आपके अस्तित्व का मूल्य महान है।
जिस तरह परमात्मा अणु ( छोटा ) मैन के विषय मे सोचते हैं, उसी तरह अणु मैन भी परमात्मा के विषय मे सोचता है इस परस्पर के चिंतन से छोटा मन को अपनी तरफ आकर्षित करता है और परमात्मा अणु मन मे परम भक्ति का जागरण करते है, और उसे स्थायी मुक्ति प्रदान करते हैं। स्थूल और सांसारिक पदार्थो का चिंतन करते हुए यदि कोई थोड़ी देर के लिए भी परम चेतना का ध्यान करता है, तो वह परमात्मा की और स्थायी मुक्ति की और बढ़ जाता है। चिंतन की प्रक्रिया में जब अणु मन अपनी चिंतन ऊर्जा को पूरी तरह परमात्मा की और बहा देता है, तब अस्थायी रूप से उसका मन एक निष्क्रिय अवस्था मे आ जाता है, जिसे योग कहते हैं।यह संयुक्ति योग कहा जाता है और अणु मैन का जीवात्मा मन में विलय भी योग कहा जाता हैं। किंतु इन दोनो प्रकार के योग में अंतर है। जहां एक योग का अर्थ जोड़ है, वह दूसरे योग का अर्थ मिलान या एकाकार होना है। जैसे चीनी और बालू मिलकर भी अलग-अलग रहते हैं। तो यहां योग का अर्थ जोड़ है, लेकिन क्या आप चीनी को पानी से अलग कर सकते हो? नही , आप नही कर सकते, क्योंकि वे एक हो गए हैं। परमात्मा मन का प्रवाह और अणु मन की चाह, दोनो प्रिकिया साथ-साथ चलती हैं। लेकिन परमात्मा के मन और अणु मन मे अन्तरत हैं। जहाँ अणु मैन का चिंतन प्रवाह आंतरिक प्रतिच्छाया में बसे परमात्मा है, वही परमात्मा के मन की आंतरिक प्रतिच्छाया यह जगत है। वे अपने अंदर ही सभी चीजों को बनाते हैं। सभी कुछ का बाहर और भीतर से नियंत्रण परमात्मा मन की इच्छा की विशेषता है और परमात्मा मन के निर्देशानुसार उसके नियंत्रण में चलना अणु मन की इच्छा है।
By- Sagar Malhotra
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