Type Here to Get Search Results !

सोचने की बात, लकीर के फ़क़ीर

0
WhatsApp ChannelJoin Now
Telegram GroupJoin Now


पहले एक प्रसंग। एक कमान अधिकारी अपने नए भर्ती लड़को से पूछ रहा था कि बंदूक में लकड़ी के बने निचले हिस्से को, जिसे बट कहा जाता है, बनाने में अखरोट की लकड़ी का ही उपयोग क्यों किया जाता है? एक जवान ने कहा, क्योंकि यह लकड़ी जल्दी टूटती नही है। दूसरे का उत्तर था, यह अपेक्षाकृत अधिक लचीली लकड़ी होती है। अधकारी ने दोनों को गलत बताया, तो तीसरे जवान ने कहा, क्योंकि दूसरी लकड़ियों की तुलना में इसमे अधिक चमक होती है। अधिकारी ने कहा, बेबकूफो जैसी बातें नही करो, ऐसा सिर्फ इसलिए कि फौज के नियम-कायदों में ऐसा ही लिखा है। 

                                                   इस प्रसंग को हम अक्सर जीते है। बिना सोचे-समझे या फिर एक पूर्वधारणा के आधार पर जीते चले जाते हैं। सामने वाला हमे लकीर का फ़क़ीर बनाए रखना चाहता है, और हम भी उसकी सोच पर जिन पसन्द करने लगते हैं। दरअसल, अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने के लिए केवल रोशनी की जरूरत नही होती। अगर जाने वाले में आत्मविस्वास ही न हो ओर वह नियतिवादी हो, तो वह अंधकार को ही अपनी नियति मान लेगा। ये बाते हम मिथकों और सच्ची कथाओं से भी समझ सकते हैं। रामायण में जामवंत द्वारा कराए गए आत्म-साक्षात्कार के बाद ही हनुमान में आत्म-विश्वास जगा और समुन्द्र लांघने में उन्होंने सफलता पाई। एक कहावत है कि हम घोड़ो को पानी के पास ले जा सकते हैं, पानी पिला नही सकते। पानी पीने की ताकत और इसे लेकर जागृति खुद के भीतर होनी चाहिए। और यह तभी संभव है, जब हम लकीर के फ़क़ीर न बने, और आत्म-जागरण से संचालित हो, साथ ही एक व्यक्ति अपने बुद्धि का इस्तेमाल किसी भी समय, किसी भी जगह बहुत ही जाग्रति से सोच समझ कर इस्तेमाल करे न कि किसी दूसरो के विचारों से।

WhatsApp ChannelJoin Now
Telegram GroupJoin Now

Post a Comment

0 Comments