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इंसान बनाम मशीन

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आज कल के भागदौड़ जिंदगी में हमसब किसी रेस्तरां में जाएं, तो खाना स्वादिष्ट लगता है । फिर किसी और दिन जाएं, तो स्वाद जरा हल्का लगता है । ऐसा इसलिए होता है , क्योंकि स्वाद व्यंजन में इस्तेमाल सामग्री की गुणवत्ता , बनाने वाले के मूड , खाने वाले की भूख आदि कई कारकों पर निर्भर करता है । इसी प्रकार , बीज तभी अंकुरित होगा , जब मिट्टी उपजाऊ होगी , वह धूप - पानी से सिंचेगा । इंसानी मूड , स्वभाव व काम - काज भी विभिन्न कारकों पर निर्भर करता है , जबकि ग्राइंडर हमेशा एक जैसा समान पीसता और कटर काटता है । मशीनी और असल जिंदगी में यह बड़ा फर्क है मशीन एक ढर्रे पर चलती है , इंसान नहीं चल सकता । यह जानते - बूझते हुए भी इंसान मशीन - सा बनने को आतुर रहता है । फिर मनचाहा परिणाम हासिल न होने पर निराशा में धंसने लगता है ।

                          यूनानी मान्यता है कि ' कुछ भी स्थिर या अटल नहीं है , मशीन तक नहीं । ' इसलिए स्वभाव , क्षमता , परिणाम आदि बदले , तो चिंतित या उतावले होने की कतई जरूरत नहीं है । हालांकि , इंसान के कुछ अंदरूनी कार्य - कलाप अटल हैं- भूख लगती है , तो हम . खाते हैं ; प्यास लगती है , तो पीते हैं । लेकिन और की चाहत मन की भूख बढ़ाती रहती है । कबीर समझाते हैं , ' वास्तविक भूख तो चंद गिनी चुनी चीजों से मिट जाती है , लेकिन मन की कसौटी पर खरा उतरने की भूख इतनी बड़ी है कि उसके आगे पर्वत या सागर भी छोटे पड़ जाते हैं । ' मन की तृष्णा कभी तृप्त नहीं होती , अध्यात्म ही इस भूख को मिटा सकता है । बुद्धि या योग्यता तभी भली - भांति अभिव्यक्त होगी , जब भीतर से वह संतुलित हो । असली उन्नति मनोदशा में सुधार से ही प्राप्त की जा सकती है , मशीन बनने से हरगिज नहीं ।

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